वर्धन वंश का इतिहास / पुष्यभूति वंश का इतिहास History of Vardhan dynesty





वर्धन वंश का इतिहास History of Vardhan dynesty

हैलो नमस्कार दोस्तों आपका बहुत-बहुत स्वागत है, आज के हमारे इस लेख वर्धन वंश का इतिहास /पुष्यभूति वंश का इतिहास (History of Vardhan dynesty) में। दोस्तों इस लेख के माध्यम से आप वर्धन वंश का संस्थापक कौन था?

वर्धन वंश के शासक कौन-कौन थे? तथा वर्धन वंश के कार्य के साथ ही उनके अन्य रोचक तथ्यों के बारे में जान पाएंगे। दोस्तों इस लेख वर्धन वंश के इतिहास से संबंधित विभिन्न प्रकार के प्रश्न

प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं। यहाँ से आप उन सभी प्रश्नों के उत्तर आसानी से प्राप्त कर पाएंगे तो आइए दोस्तों करते हैं आज का यह लेख शुरू वर्धन वंश/ पुष्यभूति वंश का इतिहास:-

वर्धन वंश का इतिहास


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वर्धन वंश का संस्थापक कौन था Who was founder of vardhan dynesty 

वर्धन वंश के इतिहास में इसका प्रथम स्वतंत्र शासक तथा संस्थापक (First independent ruler and founder)  प्रभाकर वर्धन था, किंतु ऐसा माना जाता है, कि प्रभाकर वर्धन प्रारंभ में सामंत शासक हुआ करता था

तथा बाद में उसने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत किया और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा भी कर दी। वाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित्र में यह बताया गया है,

कि वर्धन वंश के परिवार को पुष्यभूति वंश (Pushyabhuti Dynasty) के नाम से भी जाना जाता था, किंतु इस वंश की उत्पत्ति के बारे में अधिक जानकारी तत्कालीन ग्रंथ हर्षचरित्र में नहीं है।

कुछ विद्वान मानते हैं, कि प्रभाकर वर्धन के पिता आदित्य वर्धन कन्नौज के मौखरी वंश (Maukhari dynasty) के शासक शरवा बर्मन के सामंत शासक रहा करते थे तथा छोटे से क्षेत्र थानेश्वर के आसपास ही राज्य करा करते थे।

प्रभाकर वर्धन की पुत्री राज्यश्री वर्धन ने जब अवंती बर्मन के पुत्र गृह वर्मन से विवाह किया उसके उपरांत प्रभाकर वर्धन को

राजनीतिक शक्ति प्राप्त हुई तथा उसने अपने कौशल और साहस के द्वारा स्वतंत्र वर्धन वंश की स्थापना करके थानेश्वर को अपनी राजधानी बनाया। 

वर्धन वंश के शासक Rulers of vardhan Dynasty

वर्धन वंश के इतिहास के तीन प्रमुख शासक हैं, जिनका उल्लेख निम्न प्रकार से दिया गया है:- 

प्रभाकर वर्धन Prabhakar Vardhan 

वर्धन वंश के इतिहास का प्रथम शासक तथा पुष्यभूति वंश का संस्थापक प्रभाकर वर्धन को माना जाता है, जो पहले एक सामंत शासक हुआ करते थे।

प्रभाकर वर्धन ने महाराजाधिराज, परमभट्टरक जैसे उपाधियाँ ग्रहण की थी। प्रभाकर वर्धन एक शक्तिशाली और साहसी शासक था मधुबन अभिलेख में

इस बात की पुष्टि भी मिलती है कि उसकी कीर्ति और यश चारों दिशाओं में फैला हुआ था। इतिहासकार बाण ने भी प्रभाकर वर्धन की प्रशंसा करते हुए लिखा था,

कि प्रभाकर वर्धन हूण रूपी मृग के लिए सिंह था, सिंध देश के राजा के लिए ज्वर था, गुर्जर की निद्रा को भंग करने वाला, गांधार राज्य के लिए ज्वऱ तथा मालव देश की लता रुपी लक्ष्मी के लिए परशु के समान था।

किंतु इन सभी क्षेत्रों पर प्रभाकर वर्धन ने शासन नहीं किया उनका शासन थानेश्वर आज तक ही सीमित रहा करता था, किंतु उनका यश और प्रसिद्धि चारों दिशाओं में गूँजती थी।

प्रभाकरवर्धन भगवान सूर्य के बहुत बड़े उपासक थे उनकी पत्नी का नाम यशोमती था। उनके दो पुत्र हुए राज्यवर्धन और हर्षवर्धन जबकि उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम राज्यश्री वर्धन था। प्रभाकर वर्धन की मृत्यु 606 ईसवी में हो गई। 

राज्यवर्धन Rajyavardhan 

वर्धन वंश का हूणो से शुरू से ही संघर्ष रहा है, इसलिए जब प्रभाकर वर्धन की मृत्यु हुई थी। तब उनका बड़ा बेटा राज्यवर्धन हूणो से युद्ध कर रहा था।

हूणो पर विजय प्राप्त करने के बाद राज्यवर्धन अपनी राजधानी थानेश्वर लौटा और पिता की मृत्यु का समाचार पाकर बहुत ही दुखी हो गया।

पिता की मृत्यु का दुखद समाचार सुनकर उसमें बैराग्य जाग उठा और सन्यास ग्रहण करने का संकल्प ले लिया तथा अपने छोटे भाई हर्षवर्धन से कहा कि

वह राज्य भार संभाले तथा प्रजा तथा राज्य की रक्षा करें। हर्षवर्धन ने अपने बड़े भाई राज्यवर्धन को बहुत समझाया कि वह उसे अकेले ना छोड़े और ऐसा करना उचित नहीं है।

किंतु राज्यवर्धन ने अपना संकल्प नहीं तोड़ा, किन्तु उसी समय यह समाचार प्राप्त हुआ, कि हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री के पति ग्रहवर्मा की मृत्यु भी हो गई है।

ग्रहवर्मा की मृत्यु जो कन्नौज के शासक थे मालवा नरेश ने की थी (मालवा नरेश के बारे में अधिक जानकारी हर्षचरित से प्राप्त नहीं होती है) किन्तु अन्य इतिहासकारों के द्वारा बताया गया

कि वह मालवराज महासेन गुप्त का पुत्र देव गुप्त रहा होगा। यह समाचार सुनकर राज्यवर्धन को बहुत क्रोध आया और वह संयास का संकल्प तोड़कर 10000 घुड़सवार सैनिकों के साथ

अपने ममेरे भाई को लेकर मालवराज को परास्त करने के लिए निकल पड़ा। राज्यवर्धन ने अपने ममेरे भाई के साथ मिलकर अपने बहनोई के हत्यारे को परास्त कर दिया तथा उसे मृत्यु के घाट भी उतार दिया।

किंतु उसी समय मालवराज के एक मित्र गोंड़ शासक ने धोखे से राज्यवर्धन की हत्या कर दी। इस बिषय में मतभेद है, कि वह गोंड़ शासक कौन सा था कुछ इतिहासकार गोंड़ शासक शशांक को मानते हैं। 

हर्षवर्धन Harshvardhan 

हर्षवर्धन के पिता का नाम प्रभाकर वर्धन था, जिसने हूँणो को पराजित कर स्वतंत्र वर्धन वंश के शासन की स्थापना की। हर्षवर्धन की माता का नाम यशोमती था।

हर्षवर्धन की पत्नी का नाम दुर्गावती था, जिनसे दो पुत्र हुए वाग्यवर्धन और कल्याणवर्धन, किन्तु इनकी हत्या उसके मंत्री अरुणाश्वा ने करदी थी।

जिस समय हर्ष के भाई राज्यवर्धन की मृत्यु हुई थी, उस समय हर्षवर्धन की आयु केवल 16 वर्ष की ही थी। अपने भाई की मृत्यु के बाद वह थानेश्वर राज्य के सिंहासन पर बैठा, किंतु उसके हृदय में क्रोध की ज्वाला धधक रही थी।

जैसे ही उसने 606 ई. में अपना राज्य भार संभाला सबसे पहले उसके सामने दो उद्देश्य थे, अपने भाई की मृत्यु का बदला लेना और अपनी बहन की खोज करना।

हर्षवर्धन ने प्रतिज्ञा की, कि मैं आर्य की चरण रज को स्पर्श करके शपथ लेता हूँ, कि यदि मैं गोंड़ राज्य को उसके अभिभावकों सहित पृथ्वी से ना मिटा दूँ

तथा समस्त विरोधी राजाओं के पांवों की जंजीरों की झंकार से पृथ्वी को प्रतिध्वनित ना कर दूँ, तो मैं स्वयं को पतंगे की भांति अग्नि को समर्पित कर दूंगा।

हर्षवर्धन ने कामरूप के शासक भास्करवर्मा से मित्रता की जो शशांक का शत्रु हुआ करता था। इसके बाद हर्षवर्धन एक विशाल सेना लेकर कन्नौज की ओर प्रस्थान कर गया।

तब रास्ते में उसे अपना ममेरा भाई भांडी मिला जो राज्यवर्धन की हत्या के पश्चात अपनी सेना और मालवराज की सेना के साथ थानेश्वर वापस लौट रहा था। तब भांडी ने बताया कि

कन्नौज पर किसी गुप्त नाम के शासक ने अधिकार कर लिया है, और राज्यश्री विंध्याचल की ओर भाग गई है। हर्षवर्धन ने शशांक पर आक्रमण करने का कार्य अपने ममेरे भाई भांडी को दे दिया

और स्वयं अपनी बहन राज्यश्री की खोज करने के लिए विंध्याचल की ओर निकल पड़ा और राज्यश्री को ढूंढने में सफल रहा।

उस समय राज्यश्री आत्महत्या करने के लिए चिता में कूदने वाली थी, किंतु हर्ष ने वक्त पर पहुंचकर उसे बचा लिया और अपने साथ कन्नौज ले आया।

उस समय वहाँ का शासक हर्ष से डरकर भाग गया था तथा कन्नौज का सिंहासन भी खाली था। इसलिए अपनी बहन राज्यश्री के कहने पर उसने कन्नौज को भी अपने राज्य में मिला लिया और कन्नौज को दूसरी राजधानी बनाया। 

वर्धन वंश का अंतिम शासक Last rular of vardhan dynesty 

वर्धन वंश का अंतिम और प्रतापी शासक हर्षवर्धन था जिसने दिग्विजय की योजना बनाई थी। उसने थानेश्वर और कन्नौज राज्यों को एक साथ मिलाकर शक्तिशाली सेना तैयार की तथा

भारत की खोई हुई राजनीतिक एकता को पुनः प्राप्त किया। हर्षवर्धन ने पूर्व से बढ़कर उन सभी राज्यों पर आक्रमण किया, जो उसकी अधीनता स्वीकार नहीं कर रहे थे। वह लगातार छै: वर्षों तक लड़ता रहा

तथा पूरब से पश्चिम तक के देश जीत लिए। इसके पश्चात हर्षवर्धन ने शशांक पर विजय, वल्लभी के शासक ध्रुवभट्ट पर विजय प्राप्त की।

इसके बाद उसने कच्छ व सूरत पर विजय, सिंध विजय, कांगोद विजय, पंजाब व मिथिला पर विजय प्राप्त करता हुआ सभी विद्रोहों का दमन किया।

उसने कई पर्वतीय प्रदेशों पर विजय प्राप्त की कामरूप पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय (Chalukya ruler Pulakeshin II) से युद्ध किया जो

उसके जीवन की एक प्रमुख घटना मानी जाती है। पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध करने के दौरान नर्मदा नदी के तट पर 618-619 में हर्षवर्धन पराजित हो गया।

वर्धन वंश के कार्य Work of vardhan dynesty 

वर्धन वंश के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार से हैं:-

कन्नौज का सम्मेलन (Conference of Kannauj)-कन्नौज का सम्मेलन वर्धन वंश के इतिहास की एक प्रमुख घटना है। महायान शाखा से संबंधित तर्कों से प्रभावित होकर हर्षवर्धन ने महायान संप्रदाय के प्रचार के लिए कन्नौज में

अनेक धर्म के अनुयायियों को बुलाया और सभा का आयोजन किया। इस सभा में 18 देशों के राजा 3000 ब्राह्मण 3000 जैनी तथा एक हजार बौद्ध भिक्षु शामिल हुए थे।

प्रयाग सभा (Prayag Sabha) - हर्षवर्धन अपने शासनकाल में प्रत्येक पाँच वर्ष के पश्चात धार्मिक सभा का आयोजन किया करता था। इस सभा का आयोजन प्रयाग में होता था।

जिसमें हर्षवर्धन ब्राह्मणों को बौद्ध भिक्षुओं को तथा गरीबों को दिल खोलकर दान दिया करता था। जिसमें उसके राज्य कोष का धन ही समाप्त हो जाता था।

हर्षवर्धन का धर्म (Harshavardhan's religion)- हर्षचरित्र से ज्ञात होता है, कि हर्षवर्धन के पूर्वज पहले शैवधर्म के अनुयाई थे। हर्ष स्वयं शैव धर्म का उपासक था,

किंतु बाद में उसने बौद्ध धर्म को अपना लिया तथा बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार का कार्य भी किया।

शिक्षा और साहित्य की उन्नति (Advancement of Education and Literature) - वर्धन वंश में शिक्षा और साहित्य की उन्नति चरम उत्कर्ष पर थी। हर्षवर्धन के समय में विभिन्न प्रकार के कवि और विद्वान उनके राज्य में रहा करते थे।

सार्वजनिक हित के कार्य (works of public interest) - वर्धन वंश में अपनी प्रजा के लिए विभिन्न प्रकार के हितेषी कार्य भी किए गए हैं। उन्होंने परोपकारी और धार्मिक संस्थाओं का निर्माण भी करवाया,रोगियों के लिए चिकित्सालय (hospital)

अनाथो के लिए अनाथालय तथा राहगीरों के लिए धर्मशालाओं का निर्माण हुआ शिक्षा के क्षेत्र में उस समय नालंदा विश्वविद्यालय अपनी महानतम उन्नति पर था। 

वर्धन वंश के महत्वपूर्ण प्रश्न Question answer of vardhan dynesty 

प्र.- वर्धन वंश का संस्थापक कौन था
उत्तर - प्रभाकर वर्धन
प्र- प्रभाकर वर्धन के कितने पुत्र व पुत्री थे
उत्तर- प्रभाकर वर्धन के 2 पुत्र राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन तथा एक पुत्री राज्यश्री थी।
प्र - प्रभाकर वर्धन के समय वर्धन वंश की राजधानी क्या थी
उत्तर - प्रभाकर वर्धन के समय वर्धन वंश की राजधानी थानेश्वर थी।
प्र - राजवर्धन की हत्या किस शासक ने की थी 
उत्तर - राज्यवर्धन की हत्या गोंड़ शासक शशांक ने की थी
प्र - जब हर्ष राजगद्दी पर बैठा तब उसकी आयु क्या थी
उत्तर - जब हर्ष राजगद्दी पर बैठा था वह मात्र 16 वर्ष का था
प्र - हर्षवर्धन का दरबारी कवि कौन था
उत्तर - हर्षवर्धन का दरबारी कवि बाणभट्ट था
प्र - बाणभट्ट ने कौन सा ग्रंथ लिखा
उत्तर - बाणभट्ट ने हर्षचरित नामक ग्रंथ लिखा जिसमें वर्धन वंश के इतिहास का वर्णन है
प्र - राज्यश्री का विवाह किससे हुआ था
उत्तर - राजश्री का विवाह कन्नौज के शासक ग्रह वर्मा से हुआ था
प्र - हर्षवर्धन को किसने पराजित किया
उत्तर - हर्षवर्धन को चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय ने नर्मदा नदी के तट पर पराजित किया।
प्र - हर्षवर्धन के शासनकाल में कौन सा चीनी यात्री आया था
उत्तर - हर्षवर्धन के शासनकाल में हवेनसांग चीनी यात्री भारत आया था।

दोस्तों इस लेख में आपने वर्धन वंश का इतिहास (History of vardhan dynesty) वर्धन वंश के शासकों के बारे में पड़ा। आशा करता हुँ, आपको यह लेख अच्छा लगा होगा।

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